Tuesday, March 21, 2017

गोत्र व्यस्था पर आधारित महत्वपूर्ण लेख....

अभी हाल में ही “जॉली एल.एल.बी. 2” नाम की फिल्म आई थी। ये सीरीज कानूनी प्रक्रिया पर व्यंग है, तो कई कॉमेडी सीन भी फिल्म में होते ही हैं। इसके आखरी दृश्य में पुलिस एक आतंकी को पकड़ लाइ थी जो साधू होने का ढोंग कर रहा था। वैसे तो वकील के पास आसान तरीका था कि उसकी मेडिकल जांच करवा देता, उसके मुस्लिम होने की पोल खुल जाती। लेकिन वो वहीँ के वहीँ बिना लुंगी उतरवाए, ये साबित करने पर तुला था कि ये हिन्दू नहीं है।
वो परिचय हिन्दुओं वाले तरीके से पूछना शुरू करता है, गायत्री मन्त्र वगैरह पूछ लेता है और आतंकी ऐसे टेस्ट में धोखा देने में कामयाब भी हो जाता है। लेकिन नाम के बाद जब परिवार सम्बन्धी परिचय, गोत्र-मूल वगैरह पूछा जाने लगता है तो आखिर आतंकी बीच अदालत में ही सर धुन लेता है। चीखता है, या खुदा इसके आगे भी होता है ! शायद ये दृश्य देखकर आपने हंसकर टाल भी दिया होगा। हीरो के जीतने पर खुश होने की बात होती है ध्यान देने की क्या बात होगी भला ?
यहाँ गोत्र ध्यान देने की बात है। जैसा कि आम तौर पर हिन्दुओं की परम्पराओं के साथ किया जाता है वैसे ही इसे भी आडम्बर, बेवकूफी कहकर पहले तो इसका मजाक उड़ाया जाता रहा। लेकिन हिन्दुओं और उनके मक्कार बामनों ने फिर नए तरीके की मैक्ले मॉडल वाली पढ़ाई भी कर डाली और बताना शुरू कर दिया कि ये तो वैज्ञानिक रूप से भी सही है ! एक ही परिवार में होने वाली शादियों से अनुवांशिक रोगों की संभावना कई गुना बढ़ जाती है। ऐसा नहीं करना चाहिए, आधुनिक विज्ञान भी यही मानता है।
दूसरी समस्या ये हुई कि इस से जिस जाति व्यवस्था का इल्जाम हिन्दुओं पर थोपा जाता था उसकी पोल खुलने लगी। अगर हिन्दुओं में ज़ात ऊँची नीची मानी जाती और एक दुसरे में ज़ात के आधार पर शादी विवाह का परहेज होता तो शादियों में ज़ात पूछते, गोत्र क्यों पूछते हैं ज़ात के बदले ? ऊपर से ज़ात में ज़ के नीचे नुक्ता लगता था, तो ये देवनागरी लिपि का होता ही नहीं, मतलब भारत में मुश्किल से दो सौ साल से ही होगा। ऐसे मुश्किल सवाल जब आये तो हमलावरों ने फिर से हमले के तरीके को थोड़ा बदला।
ज़ात-पात की तलवार से हमले के फ़ौरन बाद नारीवाद की ढाल इस्तेमाल होती है। तो अब जब ज़ात वाली तलवार कम कामयाब होने लगी तो नारीवाद की ढाल से बचाव-हमले शुरू हुए। कहा जाने लगा कि वंश लड़कियों के नाम से चले, इसलिए गोत्र भी लड़कियों का क्यों ना आगे चले ? पुरुषों में जहाँ XY क्रोमोजोम होते हैं, वहीँ स्त्रियों में केवल XX होते हैं। इसी वजह से कलर ब्लाइंडनेस जैसी कई बीमारियाँ भी पुरुषों को ही होती हैं, जैसे गोत्र लड़कियों का नहीं होता, वैसे ही ये बीमारी लड़कियों को नहीं हो सकती।
ये Y क्रोमोजोम ही तय करने का तरीका होता था गोत्र। थोड़े सालों बाद जब व्यवस्था विकृत हो चुकी होगी, लड़कियों के गोत्र से आगे का गोत्र होगा, तब ये नहीं कहा जा सकेगा कि ये वैज्ञानिक व्यवस्था है। उस वक्त इसे छोड़ देने की जिद मचाना भी आसान होगा। एक अक्षर भी नहीं बदला जा सकता की जिद के कारण अब्राह्मिक मजहब-पंथ, इस तरह के प्रदुषण से मुक्त होते हैं। हिन्दुओं में उनकी सतत सुधार की प्रक्रिया एक गुण है, लेकिन उसे कमजोरी की तरह भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
थोड़े साल में इसका नतीजा ये होगा कि जब पूछा जाएगा कि गोत्र का वैज्ञानिक कारण क्या है ? तो हिन्दुओं के पास कोई जवाब नहीं होगा। उस स्थिति में इसे तोड़ना भी आसान होगा। जैसे संजय लीला भंसाली अपने नाम में माँ का नाम इस्तेमाल करते हैं, वैसे भी नाम को वंश में आगे ले जाया जा सकता है। इसके लिए गोत्र की सामाजिक व्यवस्था को बिना उचित वैज्ञानिक कारण दिए बदलना गलत लगता है। अपने नाम को जिन्दा रखने के निजी स्वार्थ के लिए ऐसा करना, कुछ कुछ मायावती का, सरकारी खर्चे पे, अपनी ही मूर्तियाँ लगवाने जैसा है।
बाकी नारसीसिअस नाम भी है, कहानी भी, अपने में ही उलझे होने का उदाहरण भी। आइना भी आपके पास ही होगा, पूछिए, देखिये, क्या कहता है ?

Tuesday, March 14, 2017

इवीएम (इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन) से छेड़छाड़ के आरोप और सच

इवीएम को लेकर बहन मायावती जी के आरोप चुनाव परिणाम के दिन ही आ गए थे । सोशल मीडिया पर भी उनकी तासीर बची हुई है। जाहिर है सबकी अपनी-अपनी समझ और प्रतिबद्धता है, इसलिये सबको अपनी बात कहने का हक़ भी है । उसी हक़ के नाते मैं भी इवीएम के पक्ष में कुछ कहना चाहता हूँ ।
चुनाव कराने के लिए आजकल इवीएम (इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन) का प्रयोग किया जा रहा है । पहले इसकी जगह पर बैलेट पेपर से चुनाव होता था। इस मशीन को लेकर जो सबसे बड़ी चिंता जताई जा रही है, वह यह है कि इसे हैक किया जा सकता है । यानी कि इसे अपने हित के मुताबिक सेट किया जा सकता है । कुछ इस तरह कि आप किसी भी उम्मीदवार को वोट दें, तो आपका वोट उस उम्मीदवार को न जाकर किसी विशेष उम्मीदवार को ही चला जाए । यह सेटिंग इस तरह से भी की जा सकती है कि हर ईवीएम में एक निश्चित संख्या में वोट उस विशेष पार्टी के उम्मीदवार के पक्ष में ही जाए । जाहिर है कि जो लोग कंप्यूटर के जानकार हैं वे इस बात से अवगत भी होंगे कि कंप्यूटर में प्रोग्रामिंग के जरिये ऐसी टेम्परिंग या हैकिंग की जा सकती है ।
लेकिन यह तकनीकी आधार है जिसको सामने रखकर ईवीएम आधारित चुनाव प्रणाली को ख़ारिज नहीं किया जा सकता । मैंने अपनी पिछली पोस्ट मे लिखा था कि इसी ईवीएम के द्वारा हुए चुनाव में देश में अलग-अलग पार्टियों ने विजय हासिल की है, अपनी सरकारें बनायीं हैं । इसी ईवीएम के सहारे इन चुनावो में भी तीन राज्यों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है ।
इधर के तीन दशकों में भारत की जिन कुछ स्वायत्त संस्थाओं ने सबसे बेहतर काम किया है, उनमे चुनाव आयोग का नाम सबसे ऊपर है । न्यायपालिका के प्रति पूरा सम्मान रखते हुए मैं कहना चाहूंगा कि इधर के दौर में चुनाव आयोग का प्रदर्शन उससे भी अधिक स्वतन्त्र और निष्पक्ष रहा है । न सिर्फ रहा है, बल्कि वह दिखाई भी देता है । यहाँ बात सिर्फ टी एन शेषन की नहीं हो रही है, वरन उनके उत्तराधिकारियों ने भी कम से कम इस आयोग की गरिमा को बखूबी बढ़ाया है, ऊंचा किया है ।
चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने वाले कर्मचारी और अधिकारी जानते हैं कि किस प्रकार से चुनाव आयोग यह प्रयास करता है कि उसकी पूरी चुनावी प्रक्रिया स्वतन्त्र और निष्पक्ष हो ।
चुनाव प्रक्रिया में लायी जाने वाली इस इवीएम मशीन के दो हिस्से होते हैं । एक कंट्रोल यूनिट और दूसरी बैलेट यूनिट । जब आप और हम वोट करने के लिए जाते हैं तो बैलेट यूनिट के सहारे ही वोट करते हैं । उसमें सभी प्रत्याशियों की सूची होती है, जिनके नाम और चुनाव चिन्ह वहां दर्ज होते हैं । अपने चयनित प्रत्याशी के सामने का बटन दबाकर हम अपना मत डालते हैं । कंट्रोल यूनिट मतदान अधिकारी के पास होती है, जहाँ से वह बटन दबाकर आदेश देता है, तब ही बैलेट यूनिट वोट के लिए तैयार होती है । वोट बैलेट यूनिट में पड़ता है, लेकिन कंट्रोल यूनिट में दर्ज होता है । इसी कंट्रोल यूनिट से मतगड़ना की जाती है ।
जब कंट्रोल और बैलेट यूनिट को मतदान के लिए तैयार किया जाता है तो उसकी निगरानी वहां के जिलाधिकारी और बाहर के राज्य से आये आईएस कैडर के एक पर्यवेक्षक के अधीन होता है । वे दोनों लोग यह मिलकर सुनिश्चित करते है कि चुनाव में प्रयुक्त होने वाली ईवीएम मशीन सही काम कर रही हैं । यहाँ यह ध्यान रखना जरुरी है कि जैसे ही चुनाव आयोग पूरी प्रक्रिया की घोषणा करता है, उसी समय आचार संहिता लागू हो जाती है । इस आचार संहिता के लागू होने का एक मतलब यह भी होता है कि उस प्रदेश के सभी जिलाधिकारी सीधे-सीधे चुनाव आयोग के अधीन काम करने लगते हैं । चुनाव आयोग को यदि यह शिकायत मिलती है कि फला जिले के जिलाधिकारी या पुलिस अधीक्षक ठीक से काम नहीं कर रहे हैं, या उनका किसी तरफ झुकाव दिखाई दे रहा है, तो आयोग तुरंत ही उनको वहां से हटाकर दूसरा जिलाधिकारी औऱ पुलिस अधीक्षक नियुक्त कर देता है । उत्तरप्रदेश के इन चुनावों में भी आयोग ने ऐसे कई लोगों को उनके पदों से हटाया था और उनकी जगह पर नए अधिकारियो की नियुक्ति की थी ।
तो प्रत्येक जिले में जिलाधिकारी के अतिरिक्त एक और आईएस कैडर का पर्यवेक्षक नियुक्त किया जाता है जो अन्य राज्य से प्रतिनियुक्ति पर भेजा जाता है । जैसे कि उत्तर प्रदेश में बिहार, बंगाल, मध्यप्रदेश, और जम्मू कश्मीर जैसे राज्यों के पर्यवेक्षक आये हुए थे । यह सब इसलिये किया जाता है कि उस राज्य की मशीनरी किसी प्रभाव में आकर एकतरफा पक्ष न ले ।
चुनाव के एक दिन पहले सभी मतदान अधिकारियो को उपस्थित होना होता है । उन्हें चुनाव सामग्री के साथ ईवीएम भी दी जाती है । और उनसे कहा जाता है कि वे अपनी अपनी मशीनों की जांच कर लें कि वे सही ढंग से काम कर रही हैं या नहीं । मसलन उस जांच में यह बात भी शामिल होती है कि आप जिसे वोट दे रहे हैं, वह वोट उसी उम्मीदवार को पड़ रहा है । चुकी ट्रेनिंग के दौरान मतदान कर्मियों को इस तरह से पाठ पढ़ाया गया रहता है कि वे खुद ही तत्पर रहते हैं कि उनकी मशीन ठीक से काम करे । मतदान के समय धोखा न दे ।
किसी भी आरोप से बचने के लिए चुनाव आयोग ने यह व्यवस्था की है कि चुनाव की सुबह सात बजे से पहले प्रत्येक राजनैतिक दलों के एजेंटो के सामने एक मॉक पोल कराय जाय । उस मॉक पोल में कम से 50 वोट डाले जाते हैं, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि मशीन ठीक से काम कर रही है । एजेंट यह तसल्ली करते हैं कि उन्होंने जिस प्रत्याशी को वोट दिया है, मतगड़ना के समय उसी प्रत्याशी के खाते में वोट जा रहा है । उस मॉक पोल के बाद कंट्रोल यूनिट में रिजल्ट का बटन दबाकर उन्हें दिखाया जाता है कि आपने जिस प्रत्याशी को जितना वोट दिया है, मशीन उसी अनुपात में उसे प्रदर्शित भी कर रही है । किसी भी विवाद से बचने के लिए चुनाव आयोग ने मॉक पोल को अनिवार्य बना दिया है । इस मॉक पोल को सात बजे से पहले सम्पन्न कराना होता है । उसके बाद सात बजे से वोटिंग की प्रक्रिया शुरू हो जाती है ।
चुनाव के बाद शाम को सभी एजेंटो के सामने मशीन को बंद किया जाता है । उसे सील किया जाता है । और सबको सील के उपयोग में लायी जाने वाली पट्टी का नंबर नोट कराया जाता है, जिससे राजनैतिक दल मतगड़ना के समय उस सील का मिलान कर सकें । बाद में इन मशीनों को केंद्रीय सुरक्षा बलों की निगरानी में जिला मुख्यालय पर सुरक्षित रखा जाता है ।
मतगड़ना के समय मशीनों में लगायी गयी सील को जांचा जाता है । सभी राजनैतिक दलों के अभिकर्ताओं को दिखाया जाता है और तब मतगड़ना की जाती है । मतगड़ना की इस प्रक्रिया में भी बाहर से आये पर्यवेक्षक की भूमिका भी रहती है जिससे कि स्थानीय मशीनरी कोई भेदभाव न कर सके ।
2009 के आम चुनावों में जब भाजपा की पराजय हुई थी और कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार पुनः सत्ता में आयी थी तो लालकृष्ण आडवाणी जी ने भी इन इवीएम मशीनों पर सवाल उठाया था । चुनाव में हारने वाले अन्य कुछ लोग भी समय समय पर इन मशीनो को लेकर सवाल उठाते रहे थे । कुछ समर्थकों की तरफ से भी ये सवाल आये थे ।
आयोग ने उन सवालों के मद्देनजर मतदान प्रक्रिया में और पारदर्शिता बरतने के लिए VVPAT (Voter Verifiable Paper Audit Trail ) मशीनों की नयी व्यवस्था दी है । इस व्यवस्था के अनुसार बैलेट यूनिट के साथ यह VVPAT मशीन लगायी जाती है । आप जैसे ही बैलेट यूनिट में अपने मनपसंद प्रत्यशी के पक्ष में मतदान करते हैं, उसी समय उस मशीन में उस प्रत्याशी के नाम और चुनाव चिन्ह की पर्ची उभरती है । यह पर्ची 7 सेंकेंड तक रहती है जिसे आप देखकर संतुष्ट हो सकते हैं कि आपने जिस प्रत्याशी के पक्ष में मतदान किया है, मशीन में वोट भी उसी के पक्ष में गया है ।
उत्तर प्रदेश में इस बार चुनाव आयोग ने कुल 30 विधान सभा क्षेत्रो में इस मशीन की व्यवस्था की थी । नीचे उसकी सूची दे रहा हूँ ।
मैंने कल एक बड़े पत्रकार को एक फर्जी पोस्ट शेयर करते हुए देखा था कि उत्तर प्रदेश में 20 विधान सभाओं में यह मशीन लगी हुई थी, जिसमे 16 जगहों पर भाजपा चुनाव हार गयी है । यह बिलकुल ही फर्जी जानकारी है । गूगल के इस जमाने में इसे जांचना इतना कठिन नहीं है । चुनाव आयोग की वेबसाइट पर जाकर आप भी देख सकते हैं कि आयोग ने 30 विधान सभाओं की सूची प्रकाशित की है, जहाँ पर इन मशीनों का प्रयोग हुआ है । इन 30 विधान सभाओं में से 25 पर भाजपा की विजय हुई है । आप इसे चुनाव आयोग की वेबसाइट से जांच भी सकते हैं ।
इन सारी व्यवस्थाओं के रहते हुए मुझे यह नहीं लगता कि उत्तरप्रदेश के इन चुनावों में कोई धांधली हुई है । इतनी पारदर्शी व्यवस्था के होते हुए मशीन से किसी प्रकार की छेड़छाड़ से भी मैं सहमत नहीं हो पा रहा हूँ ।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्तरप्रदेश में यह चुनाव उन अधिकारियों की देखरेख में ही संपन्न हुआ है, जिन्हें अखिलेश सरकार ने नियुक्त किया था ।
इसलिये मैं तो चुनाव आयोग की साख और विश्वसनीयता पर भरोसा करता हूँ । आप चाहें तो मुझसे सहमत हो सकते है और चाहें तो असहमत भी ।

Friday, March 10, 2017

बच्चे और सावधानी - डॉ. अव्यक्त अग्रवाल

कल फ़िर एक बच्ची आयी मेडिकल कॉलेज में। गंभीर,बेहोश एवं झटके के साथ। मस्तिष्क को बहुत नुकसान पंहुचा। जान तो हम बचा पाये वेंटीलेटर के सहारे लेकिन मस्तिष्क में पंहुचे नुकसान को शायद ही ठीक किया जा सके। हुआ जो था उसने ही यह पोस्ट लिख, लोगों को जागरूक करने का विचार आया। बच्ची एक वर्ष की है और हुआ यह कि घर के किचन में एक छोटी सी टंकी थी जिसमें बच्ची माँ को सर के बल डूबी मिली,पता नहीं कितने देर से।

हर शिशु रोग विशेषज्ञ एवं शिशु अस्पताल इस तरह के अनेक हादसे हर वर्ष देखता है। निम्न लिस्ट लिख रहा हूँ जिसे हर उस परिवार में होना चाहिए जिसमें छोटे बच्चे हों :
1. बच्चा बाथरूम में न पंहुच सके ऐसा इंतेज़ाम रखिये। जैसे दरवाज़ा बंद रखना । मैं अपने करियर में 3 बच्चे सिर्फ बाल्टी में सर उलट जाने की वज़ह से गंभीर हालत में लाये हुए देख चुका हूँ। मुझसे अनेकों चिकित्सक सैकड़ों ऐसे केसेस देखते होंगे।
2. सिक्के,मूंगफली,चने,सीताफल के बीज,नारियल के टुकड़े,कच्चे चावल,बादाम जैसी छोटी और कड़ी चीज़ें प्रतिवर्ष अनेक बच्चे अपनी स्वांस नली में फंसा लेते हैं। जिनसे मृत्यु भी हो ज़ाती है अथवा समय पर लाने पर ब्रोंकोस्कोपी नामक महंगी और रिस्की प्रक्रिया से इन foreign body को निकाला जाता है।
एक बेहद इंटरेस्टिंग केस मेरे पास आया था 2 वर्ष की बच्ची को दो माह से बहुत खांसी थी और दो बार न्यूमोनिया से कहीं भर्ती हुई थी,अस्थमा का इलाज़ भी चल रहा था।। जब मेरे पास लायी गयी तो लक्षणों के आधार पर मुझे संभावना लगी कि कुछ अटका हो सकता है स्वांस नली में। लेकिन घर के किसी भी सदस्य को नहीं पता था कि उसे कुछ भी खाते खाते अचानक खांसी शुरू हुई थी 2 माह पूर्व।
लेकिन हमने ब्रोंचोस्कोपी का निर्णय लिया और उसमें क्या मिला? नारियल का टुकड़ा। जिसे निकालने के बाद बच्ची पूर्णतः स्वस्थ हो गयी। अतः छोटे बच्चों के हाथों में इस तरह के बीज,कंचे,सिक्के नुमा चीज़ें न आने दें न ही घर में फैला कर रखें। बीज़ वाले फल अपने सामने खिलाएं और हमेशा बैठा कर। लेटे होकर कुछ भी खाने से स्वांस नली में जाने की संभावना बढ़ ज़ातीं है। (मेरा एडिट: दादी-नानी या हिन्दुत्ववादी जब पलंग पर बैठ के या लेट के खाने पर टोकते हैं, तो उतनी मूर्खता नहीं कर रहे होते हैं|)
3. केरोसिन: मिट्टी का तेल अथवा पेट्रोल बहुत से बच्चे 5 वर्ष की उम्र तक के पीकर आ जाते हैं। इन दोनों ही तेलों से बच्चों में गंभीर केमिकल निमोनिया होता है साथ ही इस गंभीर ज़हर को काटने का कोई एंटीडोट भी नहीं होता। कम तेल पिया हो तो बच जाते हैं लेकिन 50 ML से ज़्यादा मात्रा में गंभीर होने की सम्भावना एवं मृत्यु की संभावना बन ज़ातीं है।
बहुत से परिवार पेट्रोल,मिट्टी के तेल,तारपीन तेल को ज़हर नहीं मानते और यूँ ही रखे रहते हैं। बच्चों की पंहुच से इन्हें हमेशा दूर रखें। (मेरा एडिट: किरासन/मिटटी के तेल को जहर की तरह इस्तेमाल कर के आत्महत्या करने वाले दसवीं के बच्चों का हमें पता है, ये होता है |)
4. प्रति वर्ष बिना मुडेर की छत से गिरकर या बालकनी से गिरकर छोटे एवं बड़े बच्चे दोनों ही हर शहर में आते ही रहते हैं,गंभीर हेड इंजुरी के साथ। ऐसी छत का ध्यान रखिए , पैरापेट वाल ज़रूर हो और बच्चे नज़र में हों।
5. गर्म दूध,पानी,चाय से जलकर आने वाले बच्चे बहुत हैं। ध्यान रखिए।
6. सांप, कुत्ते,काटने के बहुत केस आते हैं।
7.कभी कभार करेंट लग कर गंभीर समस्या के बच्चे दिख जाते हैं। कूलर ,खुले वायर का ध्यान रखें।
8. टीवी को अपने ऊपर गिरा कर आने वाले बच्चे भी मिल जाते हैं। एक की मृत्यु भी देखी। छोटे स्टैंड पर टीवी न रखी हो जिसे बच्चे हिला सकें।
9.मोहल्लों की सड़कों पर बच्चे दौड़ते हैं और तेज़ चलती बाइक या कार के बीच आ जाते हैं।
उपरोक्त होने वाली गलतियों से बच्चों की मृत्य,परिवारों को बहुत बड़े दुःख और तकलीफों से बचाया जा सकता है। गलती हो जाने से बेहतर पहले औरों से हो चुकी गलतियों से सीखना है। जिनके छोटे बच्चे हैं वे इन पॉइंट्स को पढ़ लें,सेव कर लें।

आपका
डॉ अव्यक्त

Friday, February 17, 2017

जनरेशन गैप एवं चाइल्ड सायकॉलॉजी - मेघा मैत्रेय


मॉल में कपड़े देख रही थी। बगल में ही एक माँ अपनी बारह-तेरह साल की बेटी के साथ शॉपिंग कर रही थी।माँ ने बेटी को एक कुरती दिखाया तो बेटी ने बड़ी बदतमीजी से पलट कर जवाब दिया,"मैं नहीं पहनूँगी, तुम ही पहन लो।" बात कहने का टोन कुछ ऐसा था कि मेरा चेहरा ना चाहते हुए भी सख्त हो गया। मुझसे नजर मिली तो झेंपते हुए आंटी हंसकर कहती है,"आजकल के बच्चे भी ना, बस अपनी मर्जी की करते हैं।" मैंने जवाब नहीं दिया, लेकिन बस दिमाग में यही आया कि मर्जी अपनी हो सकती है, पर छोटी-छोटी बातों में बदतमीजी करने का हक कहा से ला रहें हैं ये बच्चे?
हमारे देश में (infact पूरी दुनिया में) पौराणिक काल से माता-पिता का एक टाइप पाया जाता रहा है जो अनुशासन शब्द को बड़ा महत्व देता है, और इसके लिए कंटाप-घुसा,लत्तम-जूता हर प्रकार के तरीकों का उपयोग जरूरी मानता है। कोई भी child psychologist इनके तरीकों को गलत और extreme मानेगा।मैं भी सहमत हूँ। पर आप इस बात से इंकार नहीं कर सकतें की इस प्रकार के अभिभावकों की एक सफलता यह है, कि वे अस्सी साल के उम्र में जब घसीट कर बाथरूम जाना शुरू कर देते हैं, तो भी बेटे के दिमाग में उनसे पीछा छुड़ाने का ऑप्शन भूल कर भी नहीं आता।आप के घर में भी ऐसे उदाहरण हैं, जिनके लिये बाप बस बाप होता है, भले ही उनकी हड्डियों में जान और आवाज में कड़क खत्म हो चुकी हो।
इसके बाद इनके उलट बिल्कुल अलग प्रजाति आयी, जो अपने बच्चों के प्रति इतना warmth रखने लगी कि इनके ढ़ाइ किलोमीटर के रेडियस में आने वाला हर पड़ोसी का बच्चा जल कर मर जाये।इनका साफ़ कहना है, कि अगर बच्चा नियम से प्रतिदिन दो बार इनके सर पर चढ़ कर सूसू नहीं करेगा, तो ये खुद को अच्छा पैरेंट नहीं मानेंगे।
इस प्रजाति का सबसे प्रत्यक्ष असर यह है कि पहले बच्चा दोस्त से एक घूँसा खाता था, दो लगाता था, और फिर अगले दिन साथ खेलता था। पर अब चार साल के दो बच्चों कि लड़ाई कब अगले तीन सौ साल चलने वाली दो परिवारों की पुश्तैनी लड़ाई में बदल जायेगी, कहना मुश्किल है। समाज इतना टूट चूका है कि आप मुहल्ले के किसी के बच्चे को गलत करता देख प्यार से भी समझायेंगे, तो हो सकता है कि उसका पूरा परिवार दल-बल के साथ आप पर चढ़ाई कर दे (तुमने मेरे लाडले को कुछ कहने की हिम्मत कैसे की? कैसे? आखिर कैसे?)

हाल में ही जब चाइल्ड सायकॉलॉजी के एक कॉन्फ्रेंस में गयी थी तो वहाँ आयी एक वक्ता ने एक बात बोली, " हर वह माता-पिता जो अपने दो बच्चों के लिये हमेशा दो डेयरी मिल्क लाते हैं, अपने भविष्य के लिए खतरा पैदा कर रहें हैं। आज आपने उन्हें कन्डीशन किया है आपस में शेयरिंग नहीं करने के लिए, कल को वह आपके साथ भी नहीं करेगा।" 
आगे उसने कहा,"अगर वो शेयर करने के लिए तैयार नहीं हैं तो आप दोनों पति-पत्नी उस चॉकलेट को खाइये और रैपर फेंकने के लिए बच्चे को थमा दीजिये, वो भी प्यार से, बिना गाली-गलौच के।"
इस सच्चाई को जांचने के लिए ज्यादा मेहनत की जरूरत नहीं है, बढ़ते वृद्धाश्रम और तिरस्कृत होते माता- पिता हर तरफ दिखेंगे।

Genration gap एक प्राकृतिक समस्या हैं और communication gap थोड़ी सांस्कृतिक, लेकिन माता-पिता को बोझ मानना और अपने स्टेट्स सिम्बल के लिए खतरा देखना सिर्फ कमीनापंथी है।
English-vinglish बहुत हद तक एक जमीनी हकीकत बयाँ करती हैं। अंग्रेजियत की बयार हमारे अंदर इतनी ज्यादा आ गयी हैं, कि नेट पर सर्फिंग ना कर पाने वाली और एस्केलेटर पर लड़खड़ा कर चढ़ने वाली माँ बच्चों को अपना इमेज बिगाड़ती हुई प्रतीत होती हैं। गाँव के मेरे दोस्त जो आज IIT पहुंच गए हैं, शरमाते हैं अपने ठेठ गंवार पिता पर।

समझ नहीं आता कि मेरी पीढ़ी इस बात को समझने के लिए तैयार क्यू नहीं हैं कि पिछले सौ सालों में जितनी तेजी से दुनिया बदली हैं, संस्कृति, और लाइफस्टाइल बदला हैं, वैसा मानव इतिहास में कभी नहीं हुआ। 
आप नहीं करवा सकते विविध भारती वाली पीढ़ी से Baywatch हजम। और करवानी भी नहीं चाहिये। ये थोड़ी-बहुत बची हुई पुरानी चीजें हैं, जो हमें जड़ से जोड़े रखती हैं। उन्हें जब अपना लोग तो समझ आएगा कि वो भले ही cool ना दिखे पर खूबसूरत हैं अपनी तरह। 
बाकी अभिभावकों को थोड़ा सावधान तो रहना ही चाहिए कि आपका बच्चा बस "सफल" ही ना बन कर रह जाये। वरना पश्चिम के पास बहुत पैसे हैं, उधर वृद्धाश्रम तिन टाइम का बढ़िया खाना देगी और सरकार भत्ता। यहाँ बहन की शादी, बच्चे की पढ़ाई,माँ की तीर्थयात्रा, पिता के श्राद्ध के बाद, जितनी सेविंग हम मिडल क्लास की होती हैं ना, अगर उसमें लात पड़ जाए तो हम एक बुखार के इलाज का खर्चा नहीं उठा पाएंगे शायद।

Thursday, February 2, 2017

हथियार बदल गए हैं--2

पवन त्रिपाठी

यह घटना एक परिचित के साथ घटी थी,उन्होंने बाद में सुनाया था।
जब गृह प्रवेश के वक्त मित्रों ने नए घर की ख़ुशी में उपहार भेंट किए थे।अगली सुबह जब उन्हेंने उपहारों को खोलना शुरू किया तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं था!
एक दो उपहारों को छोड़कर बाकी सभी में लाफिंग बुद्धा, फेंगशुई पिरामिड, चाइनीज़ ड्रेगन, कछुआ, चाइनीस फेंगसुई सिक्के, तीन टांगों वाला मेंढक, और हाथ हिलाती हुई बिल्ली जैसी अटपटी वस्तुएं भी दी गई थी।जिज्ञासावश उन्होंने इन उपहारों के साथ आए कागजों को पढ़ना शुरू किया जिसमें इन फेंगशुई के मॉडलों का मुख्य काम और उसे रखने की दिशा के बारे में बताया गया था। जैसे लाफिंग बुद्धा का काम घर में धन, दौलत, अनाज और प्रसन्नता लाना था और उसे दरवाजे की ओर मुख करके रखना पड़ता था। कछुआ पानी में डूबा कर रखने से कर्ज से मुक्ति, सिक्के वाला तीन टांगों का मेंढक रखने से धन का प्रभाव, चाइनीस ड्रैगन को कमरे में रखने से रोगों से मुक्ति, विंडचाइम लगाने से सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह, प्लास्टिक के पिरामिड लगाने से वास्तुदोषों से मुक्ति, चाइनीज सिक्के बटुए में रखने से सौभाग्य में वृद्धि होगी ऐसा लिखा था।
यह सब पढ़ कर वह हैरान हो गया क्योंकि यह उपहार उन दोस्तों ने दिए थे जो पेशे से इंजीनियर डॉक्टर और वकील जैसे पदों पर काम कर रहे थे। हद तो तब हो गई जब डॉक्टर मित्र ने रोग भगाने वाला और आयु बढ़ाने वाला चाइनीज ड्रैगन गिफ्ट किया! जिसमें लिखा था आपके और आपके परिवार के सुखद स्वास्थ्य का अचूक उपाय”!
इन फेंगशुई उपहारों में एक प्लास्टिक की सुनहरी बिल्ली भी थी जिसमें बैटरी लगाने के बाद, उसका एक हाथ किसी को बुलाने की मुद्रा में आगे पीछे हिलता रहता है। कमाल तो यह था कि उसके साथ आए कागज में लिखा था मुबारक हो, सुनहरी बिल्ली के माध्यम से अपनी रूठी किस्मत को वापस बुलाने के लिए इसे अपने घर कार्यालय अथवा दुकान के उत्तर-पूर्व में रखिए!
उन्होंने इंटरनेट खोलकर फेंगशुई के बारे में और पता लग गया तो कई रोचक बातें सामने आई।ओह!
जब गौर किया तो चीनी आकमण का यह गम्भीर पहलू समझ में आया।
भारत से दुनिया के अनेक देशों में कहीं न कहीं फेंगशुई का जाल फैला हुआ है। इसकी मार्केटिंग का तंत्र इंटरनेट पर मौजूद हजारों वेबसाइट के अलावा, tv कार्यक्रमों, न्यूज़ पेपर्स, और पत्रिकाओं तक के माध्यम से चलता है।
अनुमानत: भारत में इस का कारोबार लगभग 200 करोड रुपए से अधिक का है। किसी छोटे शहर की गिफ्ट शॉप से लेकर सुपर माल्स तक फेंगशुई के यह प्रोडक्ट्स आपको हर जगह मिल जाएंगे।
फेंगशुई का सारा माल भारत सहित दुनिया के अलग-अलग देशों में चीन से बेचा जाता है। अभी अभी दरिद्रता और गुलामी के युग से उभरे हमारे देश देश में जहाँ आज भी लोग रोग मुक्ति, धन दौलत और प्रेमी को वश में करने के लिए गधे से शादी करने से लेकर समोसे में लाल चटनी की जगह हरी चटनी खाने तक सब कुछ करने के लिए तैयार हैं, उनकी दबी भावनाओं और इच्छाओं के साथ खेलना, शोषण करना और अपनी जेब भरना कौन सा कठिन काम है?
विज्ञान की क्रांति के इस दौर में भी जहाँ हर तथ्य का परीक्षण मिनटों में शुरू हो सकता है, आंखें मूंदकर विज्ञापनों के झांसे में आना और अपनी मेहनत का पैसा इन मूर्खताओं पर बहा देना क्या यही पढ़े लिखे लोगों की समझदारी है?
चीन में फेंग का अर्थ होता है वायुऔर शुई का अर्थ है जलअर्थात फेंगशुई का कोई मतलब है जलवायु। इसका आपके सौभाग्य, स्वास्थ्य और मुकदमे में हार जीत से क्या संबंध है?
सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परिपेक्ष्य से भी देखा जाए तो कौन सा भारतीय अपने घर में आग उगलने वाली चाइनीस छिपकली यानी dragon को देख कर प्रसन्नता महसूस कर सकता है? किसी जमाने में जिस बिल्ली को अशुभ मानकर रास्ते पर लोग रुक जाया करते थे; उसी बिल्ली के सुनहरे पुतले को घर में सजाकर सौभाग्य की मिन्नतें करना महामूर्खता नहीं तो क्या है?
अब जरा सर्वाधिक लोकप्रिय फेंगशुई उपहार लाफिंग बुद्धा की बात करें- धन की टोकरी उठाए, मोटे पेट वाला गोल मटोल सुनहरे रंग का पुतला- क्या सच में महात्मा बुद्ध है?
क्या बुद्ध ने अपने किसी प्रवचन में कहीं यह बताया था कि मेरी इस प्रकार की मूर्ति को अपने घर में रखो और मैं तुम्हें सौभाग्य और धन दूंगा? उन्होंने तो सत्य की खोज के लिए स्वयं अपना धन और राजपाट त्याग दिया था।
एक बेजान चाइनीस पुतले ( लाफिंग बुद्धा) को हमने तुलसी के बिरवे से ज्यादा बढ़कर मान लिया और तुलसी जैसी रोग मिटाने वाली सदा प्राणवायु देने वाली और हमारी संस्कृति की याद दिलाने वाली प्रकृति के सुंदर देन को अपने घरों से निकालकर, हमने लाफिंग बुद्धा को स्थापित कर दिया और अब उससे सकारात्मकता और सौभाग्य की उम्मीद कर रहे हैं? क्या यही हमारी तरक्की है?
अब तो दुकानदार भी अपनी दुकान का शटर खोलकर सबसे पहले लाफिंग बुद्धा को नमस्कार करते हैं और कभी-कभी तो अगरबत्ती भी लगाते हैं!
फेंगसुई की दुनिया का एक और लोकप्रिय मॉडल है चीनी देवता फुक, लुक और साऊ। फुक को समृद्धि, लुक को यश-मान-प्रतिष्ठा और साउ को दीर्घायु का देवता कहा जाता है। फेंगशुई ने बताया और हम अंधभक्तों ने अपने घरों में इन मूर्तियों को लगाना शुरु कर दिया। मैं देखा कि इंटरनेट पर मिलने वाली इन मूर्तियों की कीमत भारत में ₹200 से लेकर ₹15000 तक है, जैसी जेब- वैसी मूर्ति और उसी हिसाब से सौभाग्य का भी हिसाब-किताब सेट है।
क्या आप अपनी लोककथाओं और कहानियों में इन तीनों देवताओं का कोई उल्लेख पाते हैं? क्या भारत में फैले 33 करोड़ देवी देवताओं से हमारा मन भर गया कि अब इन चाइनीस देवताओं को भी घर में स्थापित किया जा रहा है? जरा सोचिए कि किसी चाइनीस बूढ़े देवता की मूर्ति घर में रखने से हमारी आयु कैसे ज्यादा हो सकती है? क्या इतना सरल तरीका विश्व के बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को अब तक समझ में नहीं आया था?
इसी तरह का एक और फेंगशुई प्रोडक्ट है तीन चाइनीस सिक्के जो लाल रिबन से बंधे होते हैं, फेंगशुई के मुताबिक रिबिन का लाल रंग इन सिक्कों की ऊर्जा को सक्रिय कर देता है और इन सिक्कों से निकली यांग(Yang) ऊर्जा आप के भाग्य को सक्रिय कर देती है। दुकानदारों का कहना है कि इन सिक्कों पर धन के चाइनीज मंत्र भी खुदे होते हैं लेकिन जब मैंने उनसे इन चाइनीज अक्षरों को पढ़ने के लिए कहा तो ना वे इन्हें पढ़ सके और नहीं इनका अर्थ समझा सके?
मेरा पूछना है कि क्या चीन में गरीब लोग नहीं रहते? क्यों चीनी क्म्यूनिष्ट खुद हर नागरिक के बटुवे में यह सिक्के रखवा कर अपनी गरीबी दूर नहीं कर लेती? हमारे देश के रुपयों से हम इन बेकार के चाइनीस सिक्के खरीद कर न सिर्फ अपना और अपने देश का पैसा हमारे शत्रु मुल्क को भेज रहे हैं बल्कि अपने कमजोर और गिरे हुए आत्मविश्वास का भी परिचय दे रहे हैं।
फेंगशुई के बाजार में एक और गजब का प्रोडक्ट है तीन टांगों वाला मेंढक जिसके मुंह में एक चीनी सिक्का होता है। फेंगशुई के मुताबिक उसे अपने घर में धन को आकर्षित करने के लिए रखना अत्यंत शुभ होता है। जब मैंने इस मेंढक को पहली बार देखा तो सोचा कि जो देखने में इतना भद्दा लग रहा है वह मेरे घर में सौभाग्य कैसे लाएगा?
मेंढक का चौथा पैर काट कर उसे तीन टांग वाला बनाकर शुभ मानना किस सिरफिरे की कल्पना है?
क्या किसी मेंढक के मुंह में सिक्का रखकर घर में धन की बारिश हो सकती है? 
संसार के किसी भी जीव विज्ञान के शास्त्र में ऐसे तीन टांग वाले ओर सिक्का खाने वाले मेंढक का उल्लेख क्यों नहीं है?
अपनी वैज्ञानिक सोच को जागृत करना और इनसे पीछा छुड़ाना अत्यंत आवश्यक है।आप भी अपने आसपास गौर कीजिए आपको कहीं ना कहीं इस फेंगशुई की जहरीली और अंधविश्वास को बढ़ावा देती चीजें अवश्य ही मिल जाएगी। समय रहते स्वयं को अपने परिवार को और अपने मित्रों को इस अंधेकुएं से निकालकर अपने देश की मूल्यवान मुद्रा को चाइना के फैलाए षड्यंत्र की बलि चढ़ने से बचाइए।
आपने किसी प्रगतिशीलतावादी क्म्युनिष्ट को इनकी बुराई करते देखा है??
हिन्दू विश्वासों कि मखौल उड़ाने वालो को आपने कभी इस चाइनीज कम्यूनिष्ट अंध-विश्वास के खिलाफ बोलते सुना है???
साभार-सहयोग।

Wednesday, February 1, 2017

आक्रमण के हथियार बदल गये हैं-1


आपने एमआईबी (मेन इन ब्लेक) देखी थी??
यह उन फिल्मो में से है जिसे मैं ने सिनेमा हाल जाकर देखी थी।फिर सीडी,डीवीडी,पेन ड्राइव का जमाना बदलता गया।अपने में बहुत नये कलेवर में आया था।
...2 जुलाई 1997 को Barry Sonnenfeld द्वारा निर्देशित इस सीरीज की पहली फिल्म आई थी।एलियंस के हमलो और साजिशों पर बनी इस फिल्म ने दुनिया भर मे तहलका मचा दिया था।विल स्मिथ और टामी ली जोन्स दुनिया भर के दर्शको के चहेते सुपर स्टार हैं।लावेल कनिंघम के उपन्यास पर बेस्ड इस फिल्म ने उस समय के हिट टाइटेनिक की बराबरी की थी।फिल्म इतना चली की 2002 मे सेकंड पार्ट,2012 मे तीसरा पार्ट बनाना पड़ा था।
कहानी कोई खास नही है।विल स्मिथ और टामी ली जोन्स एक सीक्रेट एजेंसी मे है जो एलियन्स के ऊपर नजर रखते हैं।एलियन्स कभी आदमी का,कभी कीड़े या जानवर का रूप ले-ले,वेश बदल-बदल कर हमारी दुनिया के खिलाफ साजिश कर रहे...हीरो-हीरोइन उनके खिलाफ लड़ कर उन योजनाए विफल कर देते हैं। इस फिल्म मे गज़ब बात यह दर्शाया गया है की दुनिया मे रह रहे या जन-साधारणों को इन सब घटनाओ की जानकारी मे नही हैं।यही इस फिल्म की खासियत भी है।उसे मेकप,निर्देशन और स्कोरर पर तीन एकेडमी अवार्ड मिले थे।जब कभी किसी साधारण व्यक्ति ने वह घटनाए या संघर्ष देख ली दुनिया भर मे अफवाह और डर फैल जाने का खतरा होता है।'एजेंसी, यानी हीरो-लोग इस पर हर-पल सजग रहते हैं।उनके पास एक से एक गज़ट होते हैं उन्ही मे से एक गज़ट है ''मेमोरी डिलीटर।जो कोई भी उनके बारे मे जान जाता है वे उसकी वह स्पेशल याद डिलीट कर देते हैं।....अंत मे हीरो मुख्य नायक की मेमोरी डिलीट कर देता है क्योंकि वह रिटायर होना चाहता है।

'स्पाटलेस, माइंड आधारित कई फिल्मे हालीवुड मे बनकर आई है।बहुत ही सफल रही है।मेमोरी डिलीट कर दी जाती हैं उसके बाद की जिज्ञासा और ऐक्शन देखते ही बनता है।कुछ फिल्मों मे वे माइंड मे कई और स्पेशल यादे भी जोड़ देते हैं।उनकी बेजोड़ डाइरेकशन,प्रेजेंटेशन,साउंड इफेक्ट असली दुनिया बना डालती है।...डार्क सिटी,.....द ट्रान्स,.....इनसेपशन,.....टोटल रिकाल,.....Eternal Sunshine of the Spotless Mind,......50 फ़र्स्ट डेट,.....म्ंचूरियन कंडीडेट,..... जैसी फिल्मे आपको विज्ञान-गल्प समझने की क्षमता बढ़ा देती हैं कि मानव-कल्पनाओ-रचनाओ के विस्तार का अंत नही।
मुझे 'पे-चेक,और मोमेंटों सबसे ज्यादा पसन्द आई थी।वही मोमेंटों जिसे एक 'चोर,ने हमारे यहाँ 'गजनी, नाम से बना लिया था।मेरे पापा को भी पसंद थी।
''जेसन बोर्न,,सीरीज़ भी मेरी मनपसंद फिल्मे है वह केवल मात्र इसी विषय पर बनी फिल्म है....पांच फिल्मे लुडलूम के इस कथानक पर लगातार बनी और जबर्दस्त हिट रहीं...अगर एक भी देख लिया तो हर फिल्म खींच ही लेगी....गजब ऐक्शन-सस्पेंस-थ्रिल और रोमाँच।एजेंसी के अधिकारी उसकी याददाश्त नष्ट कर चुके है...अपने अतीत को तलाशता हुआ वह हर फिल्म के अंत मे प्रोग्रामर को मार देता है।पाँच सुपर-डुपर हिट मूवी लगातार बनती गई और दर्शको की संख्या मे इजाफा होता गया।साइंस-फिक्सन से अलग इन फिल्मों मे डिफरेंट तरह का कसावट होता है।रहस्य की परते-दर-परते खुलती हैं और रोमांच के चरम पर ले जाती है।
उनकी फिल्मों का सबसे बड़ा पहलू होता है वे अमूमन सुपर-डुपर हिट नावेल्स पर बनती है।यानी स्क्रिप्टिंग बाद मे होती है।
इन फिल्मों को बनाने के पीछे उनका कोई छिपा उद्देश्य अथवा कमीनापन नही होता।.... उनका उद्देश्य केवल मनोरन्जन,जाब सेटिसफैक्सन और पैसा कमाना होता है।विशुद्ध व्यवसाय...कोई हरामी-पंथी नही।इतनी मोटी कमाई है कि आपका दिमाग उड़ जाएगा।
मात्र इस एक विषय स्मृति-विलोपन पर हालीवुड बनी 15 फिल्मों ने इतना कमाया है जितना मुंबइया फिल्मों ने अपने ''पचासी-साल मे कुल-मिला-जोड़ कर भी नही कमाया है।उसमे भी कई चोरी और नकल भी शामिल है।
नेट पर सारा डाटा अवलेबल है आप खुद जोड़-घटा ले।जिनको क्न्फ़्युज्न हो मुझसे संपर्क करे।बेसिकल हमारे फिल्म-बाजो का निशाना कुछ और है।
पिछले कुछ माह पहले मैं ट्रेन से यात्रा कर रहा था।जिस कूपे मे मैं उसी मे दो-छात्र और एक छात्रा भी सफर कर रहे थे।खाली समय था सो उनसे बाते होने लगी।वे किसी प्राइवेट कालेज से इंजीनियरीग कर रहे थे।पढने-लिखने वाले होन-हार युवा थे।विभिन्न विषयो से गुजरते हुये इतिहास और फिर बाजीराव प्रथम पर बात आ गई।उनही दिनो फिल्म बाजीराव-मस्तानी फिल्म रिलीज हुई थी।
मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि 'वे बच्चे बाजीराव को ऐयाश समझते थे।,उन्होने कई कहानिया और भी गढ़ डाली थी।जो निहायत ही घटिया थी।
चुकी बाजीराव के बारे मैं पूरा जानता था इसलिये तुरंत उन्हे करेक्ट किया।उन छात्रो ने यह भी बताया कि वे कल्पनाए किसने सुनाई...वह एक अध्यापक था।मैं ने नाम सुना तो कोई आश्चर्य नही।खुद समझिए!
मेरे समय तक तो कोई अखाड़ा नही बचा था किंतु बाबा,पापा और बुजुर्ग बताते थे कि गाँव के अखाड़े मे वीर शिवाजी,व् बाजीराव की वीरता के नारे लगते थे॥उसकी कहानिया बाबा,पापा और बुजुर्ग सुनाते थे।
जो बाजीराव पेशवा (१७२०-१७४०) पिछले ढाई सौ साल से राष्ट्र की सारी युवा पीढ़ीयों का 'हीरो था,,..आदर्श था।जिसने अपने 19 साल की उम्र मे मुस्लिमो के साम्राज्य की जड़े हिला दी थी। सिकंदर के बाद दुनिया के इतिहास मे ऐसा अजेय योद्धा नही मिलेगा जिसकी मौत 40 साल की उम्र मे हुई हो और उस बीच उसने 50 बड़े युद्ध जीते हो..और एक भी युद्द न हारा हो।उसकी इमेज क्यों खराब की गई आप खुद समझ लीजिए।
सभी सुल्तान,नबाब,सूबेदार 500-500 तक औरते रखते थे, दो हजार हरम रखने वाले अकबर के बजाय "युवाओ के आदर्श-नायक 'पेशवा,के किसी गैर-प्रमाणित प्रेम-संबंध को लेकर ..एक फिल्म बनाया जाता है, उसे "ऐयाश, इंपोज किया जाता है....।आज का युवक उसे प्यार-मुहब्बत टाइप की फिल्मी रंगरेलिया मनाने वाला उजड्ड मराठा समझने लगी।समझने की कोशिश करिए यह क्या है।1932 से देखिये करीब 500 से अधिक मिलेंगी...ज्न्हे एक टारगेट के लिए बनाया गया है।
आप ही सूची तैयार करिए।खुद समझ मे आ जाएगा।
किसने बनाई,और क्यो बनाई!
हालीवुड फिल्मों की 'स्टोरीज़ मे याददाश्त नष्ट करने के लिए कुछ फिल्मों मे 'गज़ट, क्ंप्यूटराइज्ड साफ्टवेयर तो कुछ मे इंजेक्शन,और कुछ मे सम्मोहन या अवचेतन प्रणाली का उपयोग दिखाया जाता है।हमारे फिल्मकार,साहित्यकार,मीडियाकार,कलाकार हालीवुड से बहुत आगे हैं।'वे,प्रोफेशनल नही शोशेषनल हैं... समाज मे ''स्मृति तंत्र विज्ञान, का उपयोग कर लक्ष्य साधते है।वे अपने रिमूवर,इम्पोजीटर, का उपयोग वामी-सामी-कामी दुश्मनों का हित साधने के लिए करते है,उनके पास ''मेमोरी रिमूवर,है उनका शासन पर कब्जा होना,कार्पोरल जगत मे पैठ,कोर्ष,साहित्य,कला,मीडिया,फिल्म,और नौकरशाही।
पिछले सौ साल से वह इसका खुलकर इस्तेमाल कर रहे है।
वे इतिहास की किताब मे घुसकर बता रहे,आर्य बाहर से आए।
अंग्रेज़ो के जमाने से ही वे सनातन समाज की मेमोरी मिटाने का प्रयास करते हैं।
केवल मिटाने ही नही।अपनी बातें,अपनी थ्योरी,शैली,जीवन-चर्या,कल्पनाए,इच्छाए तक थोप देते हैं।आपको पता भी् नही चलता।वे कोर्ष की किताबों,भाषा और इतिहास की किताब मे घुसकर इम्पोज कर देते हैं लुटेरे नही आप बाहर से आए,हारो का इतिहास,..आप का कोई इतिहास नही,अपने ही पूर्वजो के प्रति अनास्था और संशय,आपका बंटा समाज,मुस्लिमो को बुद्धिष्टों ने बुलाया था आदि हजारो-हजार बाते।.....और कोई देखने सुनने-टोकने वाला नही।
.....'लिस्टिंग खुद करे साफ-साफ देख-पहचान लेंगे।
वह केवल विज्ञापन,या कापी-राइटिंग नही है,वह केवल जिंगल नही है,न ही वह
नेट,मैगजीन या 30 मिनट का बुलेटिन है,वह केवल एलईडी टीवी भी नही है, न वह केवल रेडियो मिर्ची या एफ-एम चैनल है,न ही एक हजार से अधिक आ रहे मनोरंजक टीवी चैनल है,...अगर आप उसे केवल गीत-संगीत मान रहे है तो भी धोखे मे है।
वह आपके अवचेतन-मस्तिष्क का ""इम्पोजीटर मशीन, है।जो आपकी यादें छीन रहा है।
वे कोर्ष की किताबों,साहित्य,कलाए,मीडिया,फिल्मों के माध्यम से घुसकर आपके दिमाग से खेलते है।खास हिस्से को "डिलीट, कर रहे होते हैं और अपने कमीने-पन भरी तार्किकता डाल रहे होते हैं।धीरे-धीरे वह लॉजिकल लगने लगता है,और आप उनके पक्ष में बहस करने लगते हैं।आप कुछ जान ही नही पाते क्या हुआ।
जेहन के खास हिस्से से पुरखों की शौर्यगाथाए,गर्व,परिश्रम और संस्कार मिटाते है।अपनी मेमोरी पर "ज़ोर मारिए,वे आपके बाप-दादो की विरासत मिटा रहे हैं।राष्ट्र,समाज,अपने लोगो के प्रति हीनता का अहसास आपको घेर लेता है।
जल्द ही आप वामी-सामी''हजारो पदमिनियों,के जौहर को लव-जेहाद की भेट चढ़ते देखिये।यह एक "वामी लीला भंसाली, है।
पहचान लीजिये यही वह "रिमूवर गजट, है जो ;'मेन-इन-ब्लेक,मे उपयोग होता था,बड़े सलीके से आपके दिमाग में युग अंकित आपके पुरुखो की शौर्य-गाथाए मिटा रहा है।स्वाभिमान के मिटते ही बहन-बेटियां भोग्या में बदल ही जाती हैं।फिर कोई फरक नही पड़ता उन्हें कौन लूट ले जा रहा।

Saturday, January 28, 2017

बच्चों का दिमागी विकास खेल खेल में

30 Point system a psychological trick
5 साल से ऊपर के बच्चों के लिए एक आसान लेकिन असरदार मनोवैज्ञानिक ट्रिक ।
करना सिर्फ इतना है माता पिता को कि बच्चे को किसी भी अच्छे काम के लिए कुछ पॉइंट्स देने हैं और गलत काम के लिए पॉइंट्स घटाने हैं।जब बच्चों के पास निश्चित पॉइंट्स इकट्ठे हो जाएँ तब उन्हें कोई भी छोटी या उनकी मनपसंद गिफ्ट दीजिये।
जैसे पार्क ले जाना या कोई फ़िल्म दिखाना या कोई खेल का सामान या एक अच्छी बुक या कोई मनपसंद खाना देना।जब आप ये गिफ्ट दे दें तो नए सिरे से पॉइंट शुरू करिये।बड़ी गलती पर पॉइंट्स 0 भी किये जा सकते हैं ये बता कर रखिये।
पॉइंट देते समय थोड़ा उदार रहिये।लचीलापन रखिये।छोटी मोटी शैतानियों को नज़रअंदाज़ करिये।पॉइंट कितने और कब देने हैं ये अधिकार सिर्फ अपने पास रखिये।पॉइंट लिखने की ज़रूरत नहीं आपको याद रहेंगे।लेकिन बच्चे को पहले से बता कर रखिये कि तुम्हें 30 पॉइंट्स कमाने पर गिफ्ट मिलेगी।गिफ्ट मिलने पर पॉइंट 0 और फिर वही प्रक्रिया शुरू करनी है।बच्चा चाहे तो बड़ी गिफ्ट जैसे साइकिल के लिए पॉइंट्स इकठ्ठा भी कर सकता है।
अच्छे काम किसी भी तरह के हो सकते हैं जैसे बड़ों की बात मानना,कोई प्यारी मीठी बात कहना,पौधों को पानी देना,होमवर्क पूरा करना,किसी प्रतियोगिता में अपना अच्छा प्रयास करना,भाई या बहन की केअर करना,स्कूल जाने में नहीं रोना इत्यादि।
फायदे:
1.पहला फायदा तो इस खेल में बच्चों को मज़ा बहुत आता है।साथ ही माता पिता का उनकी गतिविधयों में सम्मिलित होना उनमें सुरक्षा की भावना जगाता है।
2.बच्चों को बिना सजा दिए ही गलती पर आप हतोत्साहित कर पाएंगे।और गलत काम से नुकसान होता है यह सन्देश जीवन भर के लिए बच्चे के दिमाग में समाहित करवा पाएंगे।
3.इस खेल में बच्चों को पॉइंट्स कमाने पड़ते हैं जिससे उनमें कुछ अच्छा करके कमाने की भावना जाग्रत होती है।मेहनत करने का महत्व पता चलता है।
4.पॉइंट कम हो जाने पर पॉइंट फिर से मिल सकते हैं जिससे persevernce/जुटे रहने की भावना विकसित होती है।
5.जन्हाँ दो बच्चे 5 साल के ऊपर हों वँहा स्वस्थ प्रतियोगिता उत्पन्न होती है।
6.बड़े होने पर ये खेल उनके दिमाग में आपकी यादों का एक अहम् हिस्सा होगा।
7.हम खेल खेल में उन्हें बेहतर नागरिक बना सकते हैं।जैसे कचरा डस्टबिन में ही फेंकने पर 10 पॉइंट्स।
8.इस तरह कमाई हुई गिफ्ट उनके लिए सिर्फ गिफ्ट ना हो कर सफलता और जीत का अहसास होती है।बच्चा ज़्यादा खुश होता है अपने आप मिली गिफ्ट की तुलना में।
ये कितना प्रभावी है?
यूँ तो हर बच्चा एवं माता पिता अलग अलग होते हैं।और पेरेंटिंग प्रकृति खुद ही सिखा देती है।हमसे बहुत बेहतर पेरेंट्स भी होंगे और उनके अपने तरीके भी प्रभावी होंगे lपरन्तु फिर भी....इस आसान से खेल का प्रयोग मैंने अपने दोनों बच्चों को तैराकी चैंपियन बनाने के लिए किया था।
जब रिजल्ट मिले तो मोहल्ले के बच्चों और अपने मरीजों को भी इसमें शामिल किया।मुझे 90 प्रतिशत माता पिता ने इस खेल के प्रभावी होने की बात कही।
कुछ माएं जो बच्चों को मारती थीं उन्होंने भी मारना बंद कर दिया क्योंकि उनके हाथ में अब एक अहिंसक सजा वाला हथियार था।
इस्तेमाल करिये और 10 दिन बाद review ज़रूर दीजिये।
आपका डॉ अव्यक्त